इसके बाद मैं कुछ दिन के लिए ईसरी आ गई। चूँकि यहाँ पर ब्र. सुरेन्द्र कुमार जी बहुत आग्रह कर रहे थे यहाँ पर उन्होंने ने मुमुक्षु आश्रम में एक दिन मेरा प्रवचन रखा। सामने प्रवचनसार रख दिया, मैंने भी प्रवचनसार की गाथा और अमृतचंद्रसूरि की टीका का अच्छा अर्थ कर दिया। मैंने न्याय की पंक्तियों को न्याय की शैली में समझाया, तब ब्र. सुरेन्द्रजी बोले- “माताजी! आपका संस्कृत व्याकरण, न्याय और सिद्धान्त, तीनों विषयों पर अच्छा अधिकार है। आप प्रतिदिन हम लोगों को प्रवचनसार सुनाइये।“ इस तरह कई दिन स्वाध्याय चलाया गया। वैसे मैं यहाँ बीसपंथी मंदिर के स्थान में ठहरी थी। अब इन लोगों का आग्रह था कि- “आप संघ सहित यहाँ ईसरी में ही चातुर्मास करें।“ इधर गया से चंपालाल सेठ जी आकर आग्रह कर रहे थे कि गया में चातुर्मास करिये । रांची, गिरिडीह और भागलपुर के लोगों ने भी आग्रह कर रखा था। आरा से ब्र. चन्दाबाई जी के भी समाचार आ रहे थे। गया की ब्र. पतासीबाई भी आग्रह कर रही थीं। इन सभी के साथ ही उधर कलकत्ते से श्रावकों और ब्र. चांदमलजी (गुरुजी) के हर तीसरे – चौथे दिन बराबर पत्र आ रहे थे। मैं सोच नहीं पा रही थी कि- “कहाँ चातुर्मास करना?” वैसे मेरी इच्छा सम्मेदशिखर में ही रहने की थी किन्तु लोग मच्छर आदि का भय बता-बता कर बात टिकने नहीं देते थे । आखिर कर एक दिन संघ से मुनिश्री श्रुतसागरजी के द्वारा लिखाया हुआ एक पत्र (सेठ रामचंद्र कोठारी का ) मिला कि- “महाराजश्री का कहना है कि जैसे आपने सम्मेदशिखर जी के लिए बारह सौ मील की यात्रा की है, वैसे ही धर्म प्रभावना के लिए दो सौ (२००) मील और चलकर एक बार कलकत्ते चली जावो, वहाँ पाँच माह विश्राम कर लेना ।“ चूँकि यह चातुर्मास पाँच माह का था, एक महीना बढ़ा हुआ था। इस पत्र को पाकर मुनिश्री की बात मानकर ‘कलकत्ते चली जाऊँ” इस पर आपस में विचार किया । यद्यपि कोई भी आर्यिकाएँ अब दो सौ मील चलना नहीं चाहती थीं, फिर भी सबने मेरे ऊपर ही डाल दिया और बोलीं- “अम्मा ! जैसा आप निर्णय करें, वैसा हमें मान्य होगा ।“ इधर कलकत्ते से अमरचंद जी पहाड़िया आदि श्रावक भी आने वाले थे। एक बार हम लोगों ने सोचा और कलकत्ते का ही निर्णय कर लिया।
इस बीच हम लोग ईसरी से निमियाघाट होकर, ऊपर पर्वत पर जाकर, वंदना करके वहीं जलमंदिर में सोकर, वापस मधुबन ही उतर गई थीं। वहाँ पहुँचते ही कलकत्ते के श्रावक आ गये और प्रार्थना करने लगे। हम लोगों ने आहार करके विहार कर दिया। वह दिन आषाढ़ शुक्ला चौथ का था । मात्र अपने पास आषाढ़ सुदी १४ में तो दस दिन ही शेष रहे थे। आचार्य संघ से जो पत्र आया था, उसमें लिखा था कि “आप लोग विहार कर श्रावण बदी चौथ तक वहाँ पहुँचो । विशेष प्रसंग में श्रावण वदी चौथ तक वर्षायोग स्थापना करने का शास्त्र में विधान है ।“ अतः हम लोगों ने साहस करके विहार कर दिया था। इन लोगों ने कलकत्ता पहुँचने तक ब्र. सुगनचंद को रोक लिया था अतः मार्ग में सारी व्यवस्था ब्र. सुगनचंद और ब्र. मनोवती ने संभाली थी । कलकत्ते के श्रावक रास्ते में आते-जाते रहते थे और ठहरने के स्थान का निर्णय कर देते थे ।